सोनम वांगचुक: देशद्रोही या हिमालयीन संस्कृति के रक्षक !
- प्रदीप शुक्ला
- 28 सित॰
- 3 मिनट पठन

भारत में पिछले कुछ समय से जिस प्रकार सोनम वांगचुक को “देशद्रोह” के आरोपों में घेरा गया है, उसने न केवल लद्दाख बल्कि पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय जगत का ध्यान खींचा है। प्रश्न यह है कि क्या वे सचमुच राष्ट्र के लिए ख़तरा हैं या फिर वे उन शक्तियों के लिए चुनौती हैं जो हिमालय की नाज़ुक पारिस्थितिकी और आदिवासी जनजीवन को कॉर्पोरेट मुनाफ़े के लिए बलि चढ़ाना चाहते हैं?
लद्दाख की कठोर वास्तविकता
लद्दाख दुनिया के सबसे कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में से एक है —
साल के नौ महीने तापमान –5°C से –30°C के बीच रहता है।
ऑक्सीजन की कमी, पेड़ों का अभाव और जलस्रोतों की कमी यहाँ जीवन को बेहद कठिन बनाते हैं।
फिर भी लगभग 97% जनसंख्या आदिवासी समाज की है, जो अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जीती और मुस्कराती है।
इन्हीं परिस्थितियों में सोनम वांगचुक ने ऐसे प्रयोग किए जिनसे वे अंतरराष्ट्रीय पहचान तक पहुँचे।
उनका सबसे प्रसिद्ध प्रयोग है “आइस स्तूप” – कृत्रिम हिमशिला, जो सर्दियों का पानी जमा करके गर्मियों में गाँवों को जल उपलब्ध कराती है।
उन्होंने बच्चों के लिए वैकल्पिक विद्यालय शुरू किए जहाँ आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ हिमालयीन संस्कृति और स्थानीय परंपराओं का संरक्षण होता है।
इन्हीं कारणों से उन्हें रमन मैग्सेसे पुरस्कार सहित कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले।
सरकार को डर क्यों लगा?
असल संघर्ष तब शुरू हुआ जब वांगचुक और उनकी संस्था ने माँग उठाई कि लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची (Sixth Schedule) के अंतर्गत लाया जाए —
यह अनुसूची पूर्वोत्तर और कुछ आदिवासी इलाकों को विशेष संरक्षण देती है।
इसके अंतर्गत भूमि, संस्कृति और संसाधनों पर आदिवासी समुदायों का संवैधानिक अधिकार सुरक्षित होता है।
लद्दाख को 2019 में केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था। तब सरकार ने यह आश्वासन दिया था कि उसे विशेष संवैधानिक सुरक्षा मिलेगी। लेकिन जब वादा पूरा नहीं हुआ और आंदोलन खड़ा हुआ, तो सरकार ने वांगचुक को “देशद्रोही” घोषित कर दिया।
असहमति को दबाने की परंपरा
यह पहला अवसर नहीं है जब भारत में सरकार ने आंदोलनों को दबाने के लिए कठोर क़ानूनों का इस्तेमाल किया हो।
भीमा-कोरेगांव प्रकरण (2018): वकील, लेखक, प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता—कुल 16 लोगों को UAPA जैसे कठोर क़ानूनों में फँसाया गया। कई अभी भी जेल में हैं।
फादर स्टेन स्वामी (84 वर्ष): आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले इस येसु पादरी की जेल में मृत्यु हो गई क्योंकि उन्हें इलाज और ज़मानत नहीं मिली।
उमर खालिद, खालिद सैफ़ी जैसे छात्र नेता: वर्षों से जेल में हैं, मुख्यतः इसलिए कि वे युवाओं के बीच एक आंदोलनकारी चेहरा बन सकते थे।
इन सभी मामलों में एक ही पैटर्न दिखता है: जो भी हाशिए के समाजों – दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों या छोटे समुदायों – के पक्ष में आवाज़ उठाता है, उसे “देशद्रोही” करार दिया जाता है।
लद्दाख बनाम दिल्ली
लद्दाख की जनता की माँगें स्पष्ट हैं —
आदिवासी समाज की ज़मीन और संस्कृति का संरक्षण।
हिमालय की नाज़ुक पारिस्थितिकी की रक्षा।
राजनीतिक स्वायत्तता और संवैधानिक अधिकार।
लेकिन केंद्र की नज़र में लद्दाख एक व्यावसायिक अवसर है:
पर्यटन, खनन और बड़े कॉर्पोरेट प्रोजेक्ट।
चीन की सीमा से सटे इस क्षेत्र को “रणनीतिक” और “आर्थिक” लाभ का क्षेत्र मानकर स्थानीय अधिकारों को नज़रअंदाज़ करना।
यही वह बिंदु है जहाँ सोनम वांगचुक सरकार के लिए “समस्या” बन गए।
असली देशद्रोह कौन? अब मूल प्रश्न उठता है —
क्या संविधान में सुरक्षित अधिकार माँगना देशद्रोह है?
क्या हिमालय को बचाने की बात करना राष्ट्रविरोध है?
या फिर असली देशद्रोह तब होता है जब सरकार अपने वादे तोड़ती है और कॉर्पोरेट मुनाफ़े के लिए आदिवासी ज़मीनें बेच देती है?
सोनम वांगचुक न तो देशद्रोही हैं और न ही “राष्ट्र के ख़िलाफ़” काम करने वाले व्यक्ति। वे तो लद्दाख की पारिस्थितिकी, संस्कृति और संवैधानिक अधिकारों के प्रहरी हैं। उनकी गिरफ्तारी यह संदेश देती है कि भारत में लोकतांत्रिक असहमति की जगह कितनी संकुचित हो चुकी है।
आज सवाल केवल लद्दाख का नहीं है, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक भारत का है — क्या हम उन आवाज़ों को सुनेंगे जो प्रकृति और जनता के लिए बोलती हैं, या उन्हें जेल की अंधेरी कोठरियों में दबा देंगे?














टिप्पणियां