आधार: पहचान या टैग?
- प्रदीप शुक्ला
- 6 अक्टू॰
- 2 मिनट पठन

जब नागरिक केवल डेटा बन जाए, तो लोकतंत्र लॉगइन स्क्रीन में बदल जाता है।
मुख्य चुनाव आयुक्त के हालिया बयान ने एक बार फिर बहस छेड़ दी है — “आधार पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं।” यह बयान केवल प्रशासनिक सफाई नहीं, बल्कि उस गहरी सामाजिक-दार्शनिक चिंता का संकेत है जो आज के डिजिटल भारत के केंद्र में है।
1. पहचान बनाम नागरिकता
पहचान (Identity) एक प्रशासनिक अवधारणा है — किसी व्यक्ति को सिस्टम में चिन्हित करने का तरीका।नागरिकता (Citizenship) इससे कहीं गहरी है — यह व्यक्ति को अधिकार, गरिमा और संविधान से जोड़े रखने का सूत्र है।आधार नंबर यह नहीं बताता कि आप भारत के नागरिक हैं; यह सिर्फ यह दिखाता है कि आप UIDAI के डेटा-सिस्टम में दर्ज हैं। यानी यह व्यक्ति की डेटा-सत्यता का प्रमाण है, मानवीय अस्तित्व का नहीं।
2. मनुष्य से डेटा तक
“सबको पहचान मिले” के नारे के साथ शुरू हुई आधार योजना धीरे-धीरे “सबको टैग मिले” में बदल गई।अब हम एक संख्या हैं — 12 अंकों की डिजिटल पहचान, जिसमें हमारी उंगलियों और आँखों के निशान बंद हैं।पहचान पाने की इस प्रक्रिया में हमने कहीं अपनी पहचान ही खो दी। कवि की तरह कहें तो —
“काग़ज़ पर नाम लिखा है, पर ज़मीन पर चेहरा ग़ायब है।”
3. सुविधा या नियंत्रण?
सरकार इसे “सुविधा और पारदर्शिता” का प्रतीक बताती है, पर हर लाभ, सिम कार्ड, बैंक, पेंशन, यहाँ तक कि मृत्यु प्रमाणपत्र को आधार से जोड़ने के बाद एक नई डिजिटल निर्भरता पैदा हुई है।अब नागरिक का अस्तित्व सर्वर की मेमोरी पर निर्भर है।अगर किसी दिन सिस्टम कह दे — “डेटा नहीं मिला”, तो व्यक्ति सामाजिक रूप से ग़ायब हो जाता है।यही है “डिजिटल नॉन-एग्ज़िस्टेंस” — जहाँ इंसान मिटता नहीं, बल्कि डिलीट हो जाता है।
4. लोकतंत्र की नई चुनौती
लोकतंत्र में नागरिक राज्य का मालिक होता है।पर डेटा-शासन में नागरिक अब राज्य की संपत्ति बन चुका है।पहले सरकार नागरिक को देखती थी, अब नागरिक अपनी ही डिजिटल परछाई देखने लगा है।जब अधिकारों की गारंटी सर्वर पर निर्भर हो जाए, तो लोकतंत्र की जड़ें भी कोड में बंध जाती हैं।
5. पहचान नहीं, पहचाने जाने की अनुमति
आधार ने देश को जोड़ दिया है, पर इस जोड़ में नागरिकता का भाव कहीं खो गया है।अब पहचान किसी जन्म प्रमाण या संविधान से नहीं, बल्कि “स्कैन” और “ओटीपी” से तय होती है।
“आधार पहचान नहीं, पहचाने जाने की अनुमति है।”यह नागरिकता नहीं देता, बल्कि नागरिकता की परिभाषा को सर्वर की सीमा में बाँध देता है।
और इस डिजिटल युग की विडंबना यही है —
“जब मनुष्य केवल डेटा बन जाता है, तो शासन केवल कोड,और जब शासन कोड बन जाता है, तो लोकतंत्र एक लॉगइन स्क्रीन।”













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